शनिवार, 3 अगस्त 2013

अरे! मौत के बाद भी जिंदा कर देगा ये डॉक्टर!

अरे! मौत के बाद भी जिंदा कर देगा ये डॉक्टर!

| Jul 31, 2013 at 04:46pm | Updated Jul 31, 2013 at

नई दिल्ली। एक अमेरिकी डॉक्टर के दावे ने मेडिकल जगत में खलबली मचा दी है। इस डॉक्टर ने वो दावा किया है जिसका पूरा होना आज तक नामुमकिन ही माना जाता था। इस डॉक्टर के मुताबिक अगर किसी शख्स की मौत हो जाए तो अगले 24 घंटे के भीतर उसे फिर से जिंदा किया जा सकता है।
दरअसल ये खबर दिल के मरीजों के लिए किसी चमत्कार की उम्मीद से कम नहीं है। अगर किसी आदमी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो जाए तो 24 घंटे के भीतर उसमें दोबारा जान फूंकी जा सकती है। अब तक मेडिकल साइंस मौत के 2 घंटे के भीतर किसी की जिंदगी वापस लाने का दमखम रखता था। हालांकि उसके लिए कुछ खास शर्ते भी हैं। लेकिन अब एक अमेरिकी डॉक्टर ने इन तमाम दावों के उलट कहीं ज्यादा बड़ा दावा कर दिया है। इस अमेरिकी डॉक्टर का नाम है सैम पार्निया। डॉक्टर सैम पार्निया ने अपनी रिसर्च के आधार पर ये दावा किया है कि किसी शख्स की मौत हो जाने के बाद 24 घंटे के अंदर उसे दोबारा जिंदा किया जा सकता है।
डॉक्टर सैम खुद का भी एक क्लिनिक चलाते हैं और वो क्रिटिकल केयर फिजिशियन हैं। डॉक्टर सैम पार्निया ने तो इस थ्योरी पर बकायदा एक किताब भी लिख डाली है। इस किताब का नाम है ERASING DEATH यानि मौत को मिटाना। इस किताब में डॉक्टर सैम पार्निया ने उन तमाम थ्योरियों का जिक्र किया है जिससे ऐसा मुमकिन है। किताब लिखने के साथ ही सैम पार्निया सुर्खियों में आ गए। दुनिया भर के डॉक्टरों में इस किताब और इसमें लिखी गई थ्योरी को लेकर बहस तक छिड़ गई। चारों तरफ सैम पार्निया के चर्चे होने लगे हैं। लेकिन तमाम आलोचनाओं और विवादों के बाद भी डॉक्टर सैम पार्निया अपनी थ्योरी पर डटे हुए हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या कैंसर और एड्स जैसी खतरनाक बीमारी से मौत के बाद भी डॉक्टर सैम का ये तरीका कारगर होगा।
इसके अलावा तमाम और सवाल हैं जो डॉक्टर सैम के दावे पर उठे हैं। बावजूद इसके डॉक्टर सैम का यही कहना है कि जिंदगी वापस लौटाने के लिए उनके बताएं उपायों पर काम करना होगा। और अगर मृतक के घरवाले ऐसा करते हैं और मौत के फौरन बाद मृतक को उनके क्लिनिक में ले आते हैं तो वो एक चमत्कार अपनी आंखों के सामने होता हुआ देखेंगे।
डॉक्टर सैम के मुर्दे में जान फूंकने के दावों के साथ कुछ शर्ते भी जुड़ी हैं। डॉक्टर सैम की इन शर्तों में मौत की वजह क्या है, यही सबसे अहम है, इसके अलावा मौत के बाद ऐसे कौन से तरीके अपनाने हैं जिससे डॉक्टर सैम को मदद मिल सके। क्या हैं वो शर्तें और कैसे एक शख्स मौत के बाद दोबारा जिंदा हो सकता है। डॉक्टर सैम पार्निया के मुताबिक ये तभी मुमकिन है जब मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई हो। डॉक्टर सैम का कहना है कि दिल का दौरा पड़ने के बाद आदमी की मौत तो हो जाती है। लेकिन उसका दिमाग जिंदा रहता है। धीरे-धीरे उसकी कोशिकाएं मरने लगती हैं। इसके बाद फेफड़े भी काम करना बंद कर देते हैं। फिर दिमाग में ऑक्सीजन की सप्लाई भी कम होने लगती है। और जब दिमाग में ऑक्सीजन पहुंचना बंद हो जाता है तब आदमी की पूरी तरह से मौत हो जाती है।
डॉक्टर सैम के मुताबिक एक्ट्राकॉरपोरियल मेंब्रान ऑक्सीजनरेशन (ईसीएमओ) नाम की एक चमत्कारिक मशीन मौत के बाद भी दिल को ‘जिंदा’ कर सकती है। डॉक्टर सैम पार्निया मुताबिक दक्षिण कोरिया और जापान में ये मशीन 70-90 फीसदी मामलों में फेल हो चुके हार्ट को दोबारा कार्यशील बनाने में सफल रही है, जबकि अमरीका में इसकी सफलता के 40 फीसदी मामले सामने आए हैं। डॉक्टर पार्निया के मुताबिक हाल में जापान में एक महिला का दिल इसी मशीन से मौत के सात घंटे बाद दोबारा चलने लगा। अब सवाल उठता है कि कैसे?
डॉक्टर सैम पार्निया के मुताबिक दिल का दौरा पड़ने से मौत के बाद शरीर को फौरन बर्फ से ढक दें। शरीर को एकदम ठंडा कर देने से उसके शरीर के सारे अंग ठंडे हो जाएंगे। फिर उसकी शरीर का हर अंग एक स्थिर हालत में रहेगा। इसके बाद फौरन मृतक को अस्पताल ले जाएं। उसके बाद मशीन से मृतक के उतकों में ऑक्सीजन पंप किया जाए। ऐसा करने से उसके दिमाग को ऑक्सीजन मिलने लगेगा। फिर दिल की धड़कन अपने आप शुरू हो जाएगी। लेकिन डॉक्टर सैम का कहना है कि कैंसर जैसी बीमारियों में ये उपाय काम नहीं करेगा। क्योंकि एक बार अगर दिल को शुरू भी कर दिया गया तो फिर से वो काम करना बंद कर देगा।

रविवार, 28 जुलाई 2013

मोर नहीं उसके पंख पर मोरनी होती है फ़िदा ?

मोर नहीं उसके पंख पर मोरनी होती है फ़िदा ?

 रविवार, 28 जुलाई, 2013 को 12:39 IST तक के समाचार

मोर
मोरनी अक्सर अपने साथी मोर की तलाश उनके पंख देखकर करती हैं
अमरीका के वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने की कोशिश में जुटे हैं कि किसी मोर के पिछले हिस्से में मौजूद पंख में मोरनी की दिलचस्पी आख़िर क्यों होती है.
वैज्ञानिकों ने इसके लिए आंखों की निगरानी करने वाले एक विशेष कैमरे का इस्तेमाल भी किया हैं.
नर क्लिक करें पक्षी की यह चमकदार पंखों वाली पूंछ मादा पक्षी के संपर्क में आने पर आता है जिसका इस्तेमाल वे अपनी मादा पक्षी को आकर्षित करने के लिए करते हैं.
वैज्ञानिकों की इस टीम ने मोरनी की आंखों में यह विशेष कैमरा लगाया है ताकि यह अंदाज़ा मिल सके कि वे आख़िर क्या देखती हैं.
इससे जुड़ी दिलचस्प रिपोर्ट जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी में छपी है.
आंखों की निगरानी से जुड़े फुटेज में यह खुलासा हुआ है कि मोरनी का ध्यान आकर्षित करना कितना मुश्किल है और साथ ही इससे यह अंदाज़ा लगाने में मदद मिलती है कि आख़िर एक बड़ा और सुंदर पंख कैसे नज़र आने लगता है.
इससे इस राज़ पर से भी थोड़ा पर्दा हटता है कि आख़िर मोरनी मोर के पिछले हिस्से के पंख में क्या देखती है.
उनके आंखों की दाएं-बाएं की गति से यह अंदाज़ा मिलता है कि मोरनी पंख की चौड़ाई का अनुमान लगाने की कोशिश करती हैं और उनकी दिलचस्पी आंखों को आकर्षित करने वाले पंख में ही थी.
लैंगिक चुनाव (सेक्सुअल सेलेक्शन) के लिए मोर का पंख शायद सबसे मशहूर मिसाल है और इस तथ्य की पहचान चार्ल्स डार्विन ने की थी. इस दौरान जानवरों में यह विशेष लक्षण देखने को मिलता है जो विपरीत लिंग के लिए आकर्षण की वजह बनती है.

हैरान करने वाले नतीजे

कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय और नॉर्थ कैरोलिना के डेविस और ड्यूक विश्वविद्यालय ने इस शोध किया है. इस शोध परियोजना को अंजाम देने वाले डॉ जेसिका योरजिंस्की का कहना है, “बेहद कम प्रजाति ही ऐसे क्लिक करें रंगीन और विशिष्ट लक्षण दर्शाते हैं जिनका जीवित रहने की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं होता.”
मोर
जंगलों में अक्सर मोर का पिछला हिस्सा ही उठा हुआ सा नज़र आता है
उनका कहना है कि किसी परभक्षी जानवर से बचने में ये लंबे पंख बाधक बन सकते हैं.
योरजिंस्की कहते हैं, “मैं यह जानना चाहता था कि जब मोरनी अपने साथी की तलाश कर रही होती हैं तो वे क्या अनुमान लगा रही होती हैं.”
शोधकर्ताओं ने 12 मोरनी की आंखों में कैमरे जैसा उपकरण लगाया. इसमें दो छोटे कैमरे लगे हुए थे. एक कैमरा क्लिक करें पक्षी के सामने वाले नज़ारे को रिकॉर्ड कर रहा था जबकि दूसरा आंख की गतिविधि को रिकॉर्ड कर रहा था.
वह कहते हैं, “हम नतीजे से बेहद हैरान थे.”
कैमरे से अंदाज़ा लगा कि मोरनी मोर के सिर के हिस्से में मौजूद कलगी को देखने के बजाए सबसे पहले उनके पिछले हिस्से के पंख की ओर देखती हैं.
वह कहते हैं, “उनकी निगाहें निचले हिस्से की ओर ही थीं.”

चयन का आधार

इस प्रयोग से अंदाज़ा मिला कि मोरनी का ध्यान हमेशा माहौल और मोर के पिछले हिस्से के पंख के बीच ही बदलता रहता है.
शोध में यह सवाल भी उठा कि अगर मोरनी निचले हिस्से की तरफ़ ही देखती हैं तो फिर मोर का पिछले हिस्से का पंख ऊंचा क्यों रहता है.
योरजिंस्की ने इसके लिए भी तर्क देते हुए कहा कि भारत में उनका जहां प्राकृतिक वास होता है वहां पौधे ऊंची जगहों पर उगते हैं ऐसे में उनका ऊपरी पंख ही दिखाई देता है.
शेफील्ड विश्वविद्यालय के पक्षी विशेषज्ञ प्रोफेसर टिम बर्कहेड का कहना है कि यह शोध बेहद रोचक और नए तरीके का था.

शनिवार, 6 जुलाई 2013

किसी भी मुल्क में तख़्तापलट करने की विधि

किसी भी मुल्क में तख़्तापलट करने की विधि

 शनिवार, 6 जुलाई, 2013 को 11:08 IST तक के समाचार
किसी भी मुल्क में तख़्तापलट करने के कुछ कायदे होते हैं, तख़्तापलट की घोषणा करते वक़्त इन कायदों का आम तौर पर पालन किया जाता है.
सबसे पहले तो किसी सख़्त से जनरल को एकदम कड़क, कलफ़ लगी , इस्त्री की हुई वर्दी में आ कर बड़े अनिच्छुक भाव से इस बात की घोषणा करना होती है कि फ़ौज को देश को बचाने के लिए यह काम करने को मजबूर होना पड़ा है.
बीती तीन जुलाई को क्लिक करें मिस्र में जनरल अल सीसी ने यही किया. जनरल सीसी ने भी उसी पटकथा का अनुसरण किया जो लगभग 40 सालों से चली आ रही है.
तख़्तापलट करने के लिए सबसे पहले कड़क फ़ौजी वर्दी के अलावा आम तौर पर जनरल अपनी छाती पर ढेर सारे मैडलों को लगा कर जाना पसंद करते हैं. इसके अलावा एक और चीज़ जो बेहद ज़रूरी होती है वो है एक ठोस बड़ी सी टेबल या फिर एक पॉडियम जिस पर खड़ा हो कर घोषणा की जाए.
घोषणा के वक्त धूप के चश्मे का होना लाजिमी नहीं है, आप लगा भी सकते हैं और छोड़ भी सकते हैं. लेकिन आप कैसे दिख रहे हैं इस बात पर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है आखिरकार पूरी दुनिया आपको देखेगी और आपके देश के लोगों के मन में वो छवी अंकित हो जाएगी.

भाषण


मिस्र में जनरल अल-सीसी ने मुर्सी सरकार को अपदस्थ करने की घोषणा की
पहनावे के बाद सबसे अहम चीज़ है आपके अल्फ़ाज़ . तख़्तापलट की घोषणा के वक़्त देश को लगना चाहिए कि ऐसा केवल देशभक्ति के कारण किया जा रहा है. तख़्तापलट को कभी तख़्तापलट नहीं कहा जा सकता वरना आप गुंडे अपराधी लगेंगे.
जनरल आम तौर पर अपनी कार्रवाई को "हस्तक्षेप" कहते हैं.
12 अक्टूबर 1999 को पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने जब प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़ की सरकार को गिराया तो उन्होने भी लगभग इस पटकथा का पालन किया .
आम दिनों से हटकर उन्होंने देश को संबोधित करते वक़्त उस तरह के कपडे पहने थे जिन्हें सीमा पर तैनात सिपाही पहनते हैं. चश्मा पहने एक ठोस बड़ी सी टेबल के पीछे से बोलते हुए जनरल मुशर्रफ ने कहा, "आपकी फ़ौज ने कभी आपको निराश नहीं किया है, आपकी फ़ौज देश की संप्रभुता और अखंडता को बचाने के लिए अपने खून की अंतिम बूँद तक संघर्ष करेगी."
चिली में सितंबर 1973 में जनरल पिनोशे और उनके साथी जनरलों को तख़्तापलट के बाद संबोधन के ऊँचे मानदंड रचने का श्रेय जाता है. पिनोशे और उनके साथ तीन जनरल एक साथ अपनी वर्दियों में एक बड़ी सी टेबल के पीछे बैठ कर देश को अपने फ़ैसले के बारे में बाताया था.

चिली में जनरल पिनोशे और उनके साथी जनरलों ने देशभक्ति के नाम पर तख़्तापलट किया था
उन्होंने कहा " चिली की सेनाओं ने देशभक्ति के ज़ज्बे के साथ देश को अव्यवस्था से बचाने के लिए यह कार्रवाई की है."

अतिमहत्वपूर्ण शब्द

उनके दूसरे साथी गुस्तावो लेह ने "जनसमर्थन बलिदान और देशभक्ति जैसे शब्दों से लबरेज़ एक वक्तव्य" दिया. दुनिया भर में कई जनरलों ने आने वाले सालों में अपनी बात जनता को समझाने के लिए इस तरह के शब्दों का भरपूर सहारा लिया.
जिस तरह से चिली के जनरल देश को एकता का संदेश देने के लिए एक साथ दुनिया के सामने आये थे ठीक उसी तरह से मिस्र में जनरल सीसी ने राष्ट्रपति मुर्सी को हटाने की घोषणा की तो वो भी अकेले नहीं आये थे. उनके साथ उनके देश के कई नेता मौजूद थे.
वैसे जनरल पिनोशे ने आने वाले समय में अकेले ही अपने देश पर राज किया और उनके कार्यकाल में तीन हज़ार से ज़्यादा लोगों की हत्याएं हुईं .

पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ़ सरकार को बर्खास्त कर दिया था
कई जनरल इस तरह की घोषणा अकेले 1999 में पाकिस्तान के क्लिक करें जनरल परवेज़ मुशर्रफ, या 1980 में तुर्की के जनरल केनन एवरन.
इन दोनों जनरलों ने क्लिक करें तख़्तापलट की बाकी पटकथा का ठीक ढंग से पालन किया था.
वैसे तख़्ता पलट की इस विधि का पालन करने का अर्थ यह नहीं तख़्तापलट सफल हो ही जाएगा.

असफ़ल तख़्तापलट

साल 1981 में स्पेन के सिविल गार्ड के अधिकारीयों ने देश की संसद पर कब्ज़ा कर लिया. उन्हें उम्मीद थी कि देश की अन्य सेनाएँ उनके समर्थन में उठ खड़ी होंगीं.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

स्पेन के सिविल गार्ड के अधिकारियों ने संसद पर कब्ज़ा कर लिया था लेकिन तख़्ता पलट की उनकी कोशिश असफल रही
देश के सम्राट जुआन कार्लोस ने इस कोशिश को बेकार कर दिया. बहुत रात को अपनी सर्वोच्च सेनापति वाली फ़ौजी वर्दी में वो देश के सामने टीवी पर आए. कार्लोस ने कहा " राजशाही जो कि इस देश में स्थायित्व और एकता का प्रतीक है वो किसी कीमत पर इस तरह के किसी भी कदम को बर्दाश्त नहीं कर सकती जो कि जनता के द्वारा तय किए गए लोकतान्त्रिक रास्ते को रोकता हो."
सम्राट कार्लोस के इस कदम ने स्पेन में लोकतंत्र को बचा लिया. वैसे तीस साल बाद आज भी सम्राट का फ़ौजी वर्दी में दिया गया वो भाषण उनके पूरे कार्यकाल का सबसे निर्याणक चित्र बना हुआ है.
फ़रवरी 1992 में वेनेज़ुएला में लेफ्टिनेंट कर्नल क्लिक करें ह्यूगो चावेज़ ने तख़्तापलट की असफल कोशिश की. चावेज़ ने लेकिन किसी तरह इस बात की घोषणा भी टीवी पर करने में सफलता पाई कि वो असफल रहे हैं. उन्होंने कहा " साथियों फ़िलवक्त हमारा प्रयास असफल रहा है. लेकिन आगे और मौके आएँगे जब देश की जनता का बेहतर भविष्य सुनिश्चित किया जा सकेगा".

वक्त का फेर


वेनेज़ुएला का राष्ट्रपति बनने से छह साल पहले ह्यूगो चावेज़ ने तख़्ता पलट की असफल कोशिश की थी
यह भाषण उनके बहुत काम आया और छह साल बाद वो देश के राष्ट्रपति चुने गए. चावेज़ 2013 में अपने मौत तक देश के राष्ट्रपति बने रहे.
तख़्तापलट के बाद जो लोग अपदस्थ होते हैं उनका इतिहास भी अलग अलग रहा है . जैसे मिस्र के राष्ट्रपति मुर्सी ने अपनी गिरफ्तारी के बाद एक संदेश भेजने में कामयाब रहे जिसमें उन्होंने फौजी कारवाई की निंदा की . वो सन्देश जल्द ही हर तरफ से गायब हो गया.
ठीक इसी तरह से पाकिस्तान में वक़्त का पहिया पलटा और नवाज़ शरीफ़ देश के फिर प्रधानमंत्री बने गए वहीँ मुशर्रफ जेल में हैं.
चिली में जनरल पिनोशे द्वारा हटाये गए सल्वाडोर एलेन्द, ने अपने आप को हटाये जाने की घोषणा करते हुए कहा था " मुझे चिली के भविष्य पर भरोसा है, कोई और लोग आ कर देश की तारिख में लगे इस काले दाग को धोएँगे, रस्ते फिर खुलेंगे और आज़ाद लोग एक अच्छे समाज को बनाने के लिए फिर चल पड़ेंगे."
इस भाषण के बाद वो मार दिए गए लेकिन उनके शब्द आज भी चिली के राष्ट्रपति भवन के बाहर उनकी मूर्ती के नीचे खुदे हुए हैं .

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

परमाणु युग हुआ 70 साल का
मंगलवार, 4 दिसंबर 2012( 13:42 IST )

Webdunia
भारत में उस समय 3 दिसंबर की तारीख शुरू हो चुकी थी। अमेरिका में अभी 2 दिसंबर 1942 का तीसरा प्रहर चल रहा था, जब खबर आई की परमाणु के नियंत्रित सतत विखंडन में सफलता मिल गई है। शिकागो में पहली बार मिली इस सफलता को ही परमाणु बिजली व परमाणु बम के युग का जन्मदिन माना जाता है।

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अणु से भी कहीं छोटे परमाणु को भी विखंडित किया जा सकता है, यह तो 1938 का अंत आते-आते पता चल गया था। जर्मनी के दो भौतिकशास्त्रियों ओटो हान और फ्रित्स श्ट्रासमान को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ था कि यूरेनियम का नाभिक उस समय टूट कर बिखरने लगता है और दूसरे रासायनिक तत्वों में बदल जाता है, जब उस पर न्यूट्रॉन कणों की बौछार की जाती है।

अगला प्रश्न यह था कि नाभिकीय विखंडन की इस अज्ञात क्रिया को क्या एक सतत क्रिया (चेन-रिएक्शन) का भी रूप दिया जा सकता है? न केवल दुनिया भर के भौतिकीविद ही इस सतत क्रिया का सुराग पाने में जुट गए, यूरोप और अमेरिका के सैन्य अधिकारियों और राजनेताओं के भी कान खड़े हो गए। विज्ञान और राजनीति के बीच तब जो मिलीभगत शुरू हुई, वह इतिहास में पहले कभी देखने में नहीं आई थी।

कैसे होता है परमाणु विखंडनः सिद्धांत रूप में, किसी न्यूट्रॉन कण को तेज गति से यूरेनियम के किसी नाभिक पर दागने से वह नाभिक दो या तीन नए न्यूट्रॉन कण पैदा करते हुए खंडित हो जाता है। ये नए न्यूट्रॉन कण किसी दूसरे नाभिक से टकरा सकते हैं और उसे तोड़ कर फिर से नए न्यूट्रॉन कण पैदा कर सकते हैं।

यदि न्यूट्रान कणों की हर बार एक सही गति हो और यूरेनियम की एक तथातथित सही 'क्रांतिक मात्रा' (क्रिटिकल मास) हो, तो यह क्रिया स्वतः ही चल पड़ती है और हर नाभिक के टूटने के साथ भारी मात्रा में ऊर्जा भी पैदा करती है। किसी रिएक्टर में नियंत्रित होने पर यही ऊर्जा बिजली बनाने के काम आ सकती है जबकि किसी बम में बंद होने पर प्रलयंकारी विध्वंस मचा सकती है।

1938 में जर्मनी हिटलर के शिकंजे में था। यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बादल घिरने शुरू हो गए थे। यहूदियों और अपने हर तरह के विरोधियों का सफाया कर देने के हिटलर के संकल्प के कारण जर्मनी के अल्बर्ट आइनश्टाइन और हंगरी के लेओ शिलार्द जैसे चोटी के वैज्ञानिकों को भाग कर अमेरिका में शरण लेनी पड़ी थी। दोनो यहूदी थे। शिलार्द ने तो ओटो हान के परमाणु विखंडन से करीब 5 साल पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि एक बार शुरू हो जाने पर स्वतः परमाणु विखंडन की सतत क्रिया भी संभव है।

हिटलर की भूमिकाः हिटलर के अत्याचारों से बचने के लिए जर्मनी से भागे वैज्ञानिकों व अन्य वैज्ञानिकों को उन दिनों यही चिंता सता रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि जर्मनी उनसे पहले परमाणु के सतत विखंडन का रहस्य जान ले और शायद पहला परमाणु बम भी बना ले। तब तो बेड़ा गर्क ही हो जाएगा। अतः वे पूरे जोर-शोर से जर्मनी से पहले ही यह रहस्य जान लेना और जर्मनी से आगे बढ़ जाना चाहते थे।

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यही बेचैनी इटली के एनरीको फेर्मी को भी थी। उन्हें 1938 में परमाणु भौतिकी में उनके शोधकार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला था। उनके सामने भी समस्या यह थी कि उनकी पत्नी यहूदी थी और उस समय इटली में हिटलर के परम मित्र बेनीतो मुसोलिनी की ासिस्ट सरकार की अत्याचारशाही थी। नोबेल पुरस्कार लेने के बहाने से फेर्मी सपरिवार देश छोड़ कर भागने और अमेरिका में शरण पाने में सफल रहे।

अमेरिका पहुंचते ही फेर्मी एक ऐसा रिएक्टर बनाने में जुट गए, जिसके माध्यम से वे दिखाना चाहते थे कि सतत परमाणु विखंडन की क्रिया को नियंत्रित भी किया जा सकता है।

इस बीच हिटलर ने पहली सितंबर 1939 को पोलैंड पर आक्रमण कर द्वितीय विश्व युद्ध का बिगुल भी बजा दिया था। अमेरिका सजग तो हो गया था, लेकिन युद्ध में लगभग तीन साल बाद तब शामिल हुआ, जब जापान ने उसके नौसैनिक अड्डे पर्लहार्बर पर बमबारी करदी।

अमेरिका इस हमले से ऐसा बौखलाया कि वह पहला परमाणु बम बनाने के अपने तथाकथित 'मैनहटन प्रॉजेक्ट' को मूर्तरूप देने पर तुरंत जुट गया।

पहला परमाणु रिएक्टरः 1942 में लगभग उसी समय एनरीको फेर्मी और लेओ शिलार्द की बनाई रूपरेखा के आधार पर शिकागो के एक स्टेडियम के स्क्वैश हॉल में वह पहला परमाणु रिएक्टर भी बन कर तैयार हुआ, जिसमें पहली बार परमाणु विखंडन की नियंत्रित सतत क्रिया का प्रदर्शन किया जाना था। रिएक्टर एक-दूसरे पर रखी ग्रेफाइट और यूरेनियम की टनों भारी परतों का बना था। ग्रेफाइट परतों का काम था न्यूट्रॉन कणों की बौछार की गति को घटाते हुए सही सीमा के भीतर रखना। परमाणु विकिरण से रक्षा के बारे में बहुत कम ही सोचा गया था।

दोनों वैज्ञानिक कैडमियम के एक घोल से भरी कुछ बाल्टियां लिए बैठे थे, ताकि कोई आपात स्थिति पैदा होने पर वे यह घोल रिएक्टर पर उड़ेल कर सतत विखंडन की क्रिया को रोक सकें। कैडमियम क्योंकि न्यूट्रॉन कणों को सोख लेता है, इसलिए वे उसके द्वारा सोख लिए जाने पर यूरेनियम के नाभिकों से नहीं टकरा पाते और तब विखंडन की क्रिया ठंडी पड़ जाती।

शिकागो में 2 दिसंबर 1942 की सुबह यह प्रयोग शुरू हुआ। फेर्मी के आदेश पर दोपहर में कुछ देर आराम के लिए काम रोक दिया गया। बाद में जब प्रयोग आगे बढ़ा, तब स्थानीय समय के अनुसार तीसरे पहर तीन बज कर 20 मिनट पर न्यूट्रॉन कणों द्वारा यूरेनियम के नाभिक तोड़ने, नए न्यूट्रॉन कण पैदा करने और फिर नए नाभिक तोड़ने और नए न्यूट्रॉन पैदा करने की सतत क्रिया चल पड़ी।

इस तरह यह पहली बार सिद्ध हो गया कि परमाणु विखंडन की क्रिया को ऐसे भी शुरू एवं नियंत्रित किया जा सकता है कि एक बार शुरू हो कर वह अपने आप चलती रही। लेकिन, स्वतः चलने वाली यह सतत क्रिया तभी शुरू होती है, जब यूरेनियम जैसे विखंडनीय पदार्थ की क्रांतिक मात्रा कहलाने वाली एक निश्चित मात्रा भी मौजूद हो।

रिएक्टर के बाद बम : इस प्रयोग की सफलता के बाद फेर्मी, शिलार्द और उनके साथी वैज्ञानिक परमाणु बम वाली मैनहटन परियोजना को सफल बनाने में जुट गए। उसकी परिणति 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर दो अमेरिकी परमाणु बमों के गिराने से हुई अपू्र्व प्रलयलीला के रूप में दुनिया के सामने आई।

किंतु, दुनिया अमेरिका की चाहे जितनी निंदा-भर्त्सना करे, असली दोषी तो वह हिटलर था, जिसने 6 वर्ष पूर्व पोलैंड पर अकारण आक्रमण कर विश्वव्यापी युद्ध की आग जलाई थी। शिलार्द बम के इस्तेमाल के पक्ष में नहीं थे, जबकि फेर्मी पक्ष में थे। दोनों को इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि उनके बनाए पहले रिएक्टर ने ही परमाणु ऊर्जा को बिजली में बदलने का मार्ग भी प्रशस्त किया।

लेकिन आज, परमाणु युग का सूर्योदय होने के 70 साल बाद, यह युग गर्व से अधिक शोक का विषय बन गया है। सारी दुनिया में उसके सूर्यास्त की मन्नत मानाई जा रही है। हिरोशिमा और नागासाकी यदि बम-विभिषिका की दारुण गाथा गा रहे हैं तो चेर्नोबिल और फुकूशिमा रिएक्टर-विस्फोट की त्रासदी सुना रहे हैं।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012


Tuesday, November 06, 2012 
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सौ से ज्यादा ‘उड़नतश्तरी’ देखी गईं

Tuesday, November 06, 2012, 17:08

सौ से ज्यादा ‘उड़नतश्तरी’ देखी गईं
नई दिल्ली : जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर में चीन सीमा से लगे इलाकों में सैनिकों ने पिछले तीन महीनों में सौ से ज्यादा ‘उड़नतश्तरी’ या यूएफओ देखे हैं। सेना, डीआरडीओ, एनटीआरओ और आइटीबीपी समेत एजेंसियां अब तक इस चमकीली ‘उड़नतश्तरी’ की पहचान नहीं कर पायी है।

सैन्य अधिकारियों ने यहां बताया कि करगिल -लेह से लगे इलाके में तैनात 14 कॉर्प्स ने सेना मुख्यालय को इस संबंध में एक रिपोर्ट भेजी है कि ठाकोंग में पांगोंग सो झील के निकट आईटीबीपी इकाई ने इन यूएफओ को देखा है।

रिपोर्ट के मुताबिक यह तश्तरी चीन की तरफ से आते हुए धीरे धीरे आसमान की ओर जाकर तीन से पांच घंटे में गायब हो जाती है। अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की कि ये यूएफओ चीनी ड्रोन या उपग्रह नहीं था। इसकी पहचान के लिए एक खास तरह के रडार उपकरण का भी इस्तेमाल किया गया लेकिन कुछ पता नहीं चल पाया।

सेना अधिकारियों ने इसकी पहचान नहीं हो पाने पर चिंता भी जाहिर की है। कुछ लोगों का मानना है कि यह चीन का कोई निगरानी उपकरण हो सकता है। (एजेंसी)

…तो एलियन होते भी हैं या नहीं?

Monday, November 05, 2012, 19:34
…तो एलियन होते भी हैं या नहीं?
लंदन : ब्रिटेन में अज्ञात हवाई वस्तुओं (अनआईडेंटिफाईड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट्स या यूएफओ) के समर्थकों ने ‘उड़न वस्तुओं’ की संख्या में आती कमी और परग्रही जीवन के बारे में सबूतों के अभाव की वजह से यह मान लिया है कि शायद एलियनों (दूसरे ग्रहों के निवासी) जैसी कोई चीज होती ही न हो।

टेलीग्राफ की खबर के अनुसार, उड़नवस्तु समर्थकों ने माना कि वे उड़ने वाली इन अज्ञात वस्तुओं के बारे में कोई सबूत मुहैया कराने में असफल रहे हैं और उड़न तश्तरियों के दिखने में आई कमी से मालूम पड़ता है कि एलियन कुछ होता ही नहीं है और इसका मतलब यह है कि यूफोलॉजी (अज्ञात उड़न वस्तुओं का अध्ययन) का अंत अगले दशक में हो सकता है।

इन उड़न तश्तरियों व अन्य उड़न वस्तुओं में रुचि लेने वाले दर्जनों समूह रुचि के अभाव में पहले ही बंद हो चुके हैं। इन वस्तुओं के शोध से जुड़ी ब्रिटेन की एक अग्रणी संस्था अगले सप्ताह यह चर्चा करने के लिए एक बैठक का आयोजन कर रही है कि इस विषय का आगे कोई भविष्य है भी या नहीं।

एसोसिएशन फॉर द साइंटिफिक स्टडी ऑफ एनोमेलस फिनोमिना (एस्सैप) के अध्यक्ष डेव वुड ने कहा कि यह बैठक इस विषय पर आए संकट और इसके संभावित भविष्य के बारे में चर्चा के लिए बुलाई गई है।

उन्होंने अखबार से कहा, ‘संभव है कि अगले दस सालों में इस विषय का कोई अस्तित्व ही न रहे।’ एस्सैप के पास अज्ञात उड़न वस्तुओं से जुड़े मामलों की संख्या में 1988 के बाद से 96 प्रतिशत की कमी आई है जबकि इन शोधों में लगे समूहों की संख्या 1990 के दौरान 100 से ज्यादा थी और अब गिरकर यह लगभग 30 ही रह गई है।

इस पूरे मसले पर वोरकेस्टर विश्वविद्यालय में एक बैठक में चर्चा की जाएगी और इसके निष्कषरें को एसोसिएशन की पत्रिका ‘एनोमली’ के अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा। (एजेंसी)